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    अमरत्व से श्रेष्ठ सदाचार

    Morality best than immortality


    अमरत्व से श्रेष्ठ सदाचार 

    बलाधि ऋषि के नवजात शिशु की मृत्यु हो गई। उससे वे बहुत व्याकुल हो उठे। उन्होंने देवराज की उपासना कर एक अमर पुत्र प्राप्त करने का निश्चय किया।

    बलाधि ने तपस्या आरंभ की। तप शक्ति से उन्होंने देवराज को प्रभावित कर लिया। इंद्रदेव प्रकट हुए और वर माँगने को कहा। बलाधि ने कहा-"देव मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिए जिसकी देह कभी क्षय न हो।"

    देवराज ने कहा-"मनुष्य देह का अमर होना तो संभव नहीं है, आप कोई दूसरा वर माँगो।".....कुछ सोचकर ऋषि ने कहा-"तो फिर आप यह वरदान दीजिए कि वह सामने जो पहाड है जब तक अचल खड़ा है तब तक मेरे पुत्र की मृत्यु न हो।"

    एवमस्तु! कहकर इंद्र प्रसन्नतापूर्वक चले गए। इधर समय पाकर बलाधि को पुत्र प्राप्त हुआ। उसका नाम मेधावी रखा गया। मेधावी को बाल्यावस्था से ही यह अहंकार हो गया कि उसे कोई नहीं मार सकता, फलस्वरूप वह जहाँ भी जाता ढिठाई करता। किसी से न डरता। जो जी में आता वही करता।

    बलाधि ने एक दिन अपने पुत्र को बुलाकर समझाया-"वत्स! विद्या, धन, रूप, शक्ति और देवकृपा का अहंकार नहीं करना चाहिए। 

    अहंकार ही मनुष्य के पतन और सर्वनाश का कारण है। मुझे मिले वरदान का चिरसुख चाहो तो अहंकार करना छोड़ दो।" मेधावी को पिता की बात पर बड़ा गुस्सा आया। उन्हें दुर्वचन कहकर वहाँ से चल दिया। उधर ऋषि धनुषाक्ष से भेंट हो गई। उसने उन्हें भी अपशब्द कह डाले। ऋषि धनुषाक्ष ने उसे शाप दे दिया-"तुम्हारी तत्काल मृत्यु हो जाए।" किंतु आश्चर्य! ऋषि का शाप निरर्थक गया। मेधावी उद्धत हँसी हँसता हुआ जीवित ही खड़ा रहा। ऋषि को वरदान की बात याद आई उन्होंने तुरंत भैंसे का रूप धारण कर सीगों से पहाड़ को ढहा दिया। उसके गिरते ही मेधावी भी वहीं धराशायी हो गया।

    ऋषि बलाधि बहुत दुखी हुए। उन्होंने समाचार सुना तो बोल उठे-"अमर पुत्र प्राप्त करने की अपेक्षा शांत, सरल और सद्गुणी बालक होता तो अल्पायु में ही वह कहीं अधिक सुख देता।"

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