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    प्रश्न--ओशो, किसी भी चीज में निषेध नहीं, लेकिन काम किया नहीं जाता है। हर काम किया नहीं जाता है, लोग समझ नहीं पाते हैं। यह भी क्या मुक्ति होता है?

     

    Question-Osho-there-is-no-prohibition-in-anything-but-the-work-is-not-done-Not-everything-is-done-people-dont-understand-What-salvation-is-this


    प्रश्न--किसी भी चीज में निषेध नहीं, लेकिन काम किया नहीं जाता है। हर काम किया नहीं जाता है, लोग समझ नहीं पाते हैं। यह भी क्या मुक्ति होता है? 

    ओशो--वह यही समझते हैं कि इसमें कुछ चोरी हो जाएगी, बेईमानी हो जाएगी, हत्या हो जाएगी। मजा यह है कि अगर यह खयाल है कि सब जैसा है, वह जो टोटेलिटी आफ थिंकिंग है, उसके साथ एक है, तो यह आदमी चोरी करेगा कैसे? यह संभव भी नहीं है। मेरा कहना है, जो सर्वभाव से, जो सर्व स्वीकृत का भाव है, उसमें जो बच जाए, वही पुण्य है। जो छोड़ना ही नहीं पड़ता, वह बचता ही नहीं। उसे कहीं छोड़ने का, निषेध करने नहीं जाना पड़ता। वह होता ही नहीं। वह वहां है ही नहीं। लेकिन हमारी भूल यह है कि अंधेरे में रहनेवाले लोगों से--जो सदा से अंधेरे में रहे हो--जाकर अगर कोई कहे कि तुम दिया जला लो, तो वह कहेगा कि दिया तो जलाएंगे, लेकिन अंधेरा कैसे मिटाएंगे? वह पूछेगे भर। जलाएंगे नहीं दिया। जलाए तो फिर सवाल ही नहीं उठता। सवाल तो अंधेरा निकालने का है। अब उनको समझाना मुश्किल है कि दिया जला, तो अंधेरा रहा ही नहीं; फिर निकालने का सवाल ही नहीं। या ऐसा भी कह सकते हैं, जब दिया जल गया, तो अंधेरा भी दिया ही हो जाता है। फिर अंधेरा भी उजाला ही है, फिर बात कहां है कि तुम जाओगे निकालने? तो उसे डर लगता है कि चोरी कर रहा है, बेईमानी कर रहा है, झूठ बोल रहा है। उसे लगता है, तो सब स्वीकार लूं--झूठ भी बोलूं, चोरी भी करूं, पाप भी करूं? तो गलत सिखा रहे हैं आप। यह नहीं हो सकता, निषेध चाहिए, यह इनकार कि चोरी मत करना। 

            पहली दफा उपनिषद का अनुवाद हुआ जर्मनी में, तो जिन्होंने पहले अनुवाद की हवा पहुंचाई, उनके सामने सबसे बड़ा जो सवाल उठा, वह यह था कि ये धर्मग्रंथ कैसे हैं? क्योंकि इनमें नहीं लिखा है कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, टेन कमांडमेंट कहां हैं? ये धर्म-ग्रंथ हैं कैसा? इनमें कहीं लिखा ही नहीं है कि तुम क्या न करो। इनमें तो बस यही ब्रह्म, ब्रह्म--तो ये धर्म ग्रंथ संदिग्ध मालूम होते हैं। क्योंकि धर्म ग्रंथ को तो होना चाहिए साफ--क्या मत करो--पराई स्त्री को मत देखो, दूसरे को धन तुम्हारा नहीं है, झूठ मत बोलो, धोखा मत दो, दगा मत करो। यह सब लिखा नहीं है, तो ये धर्म ग्रंथ कैसे? लेकिन उन्हें पता ही नहीं कि जिसने यह लिखा है, वह सिर्फ नीति ग्रंथ रह गया है, धर्म ग्रंथ नहीं है। उसे धर्म ग्रंथ लिखने की जरूरत ही नहीं है। अमृतसर में मैं एक वेदांत सम्मेलन में गया था। एक बड़े संन्यासी है। उन्होंने अपने प्रवचन के बाद नारे लगवाए लोगों से धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। उनके पीछे बोला, तो मैंने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। वे कहते हैं धर्म की जय हो, फिर अधर्म बचेगा नाश करने के लिए? धर्म की जय हो गयी, बात खत्म हो गयी। आगे की बात की फिकर कैसे करोगे? यानी ऐसा ही है कि दिया जले और अंधेरा हटाएंगे। अब इनको पता नहीं है कि यह जो नारा दिया जा रहा है कि धर्म की जय, तो हो गयी बात। अधर्म के नाश की बात पूरी हो गयी। ये दो चीजें नहीं हैं, एक ही चीज के दो हिस्से हैं। डर लगता है, वही डेथ है, जो हमें धर्म तक नहीं पहुंचने देता है, नीति तक अटका लेता है। और नीति बड़ी साधारण बात है। धर्म को उससे क्या लेना-देना? । 

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