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    हिंदी सिने जगत में रंगीन फिल्मों का वह दौर, जब रंगीन फिल्म देखने की चाह में थियेटर खचाखच भर जाया करते थे

    सैरंध्री


    हिंदी सिने जगत में रंगीन फिल्मों का वह दौर, जब रंगीन फिल्म देखने की चाह में थियेटर खचाखच भर जाया करते थे 

    भारत में जबसे फ़िल्में बननी शुरू हुईं, तभी से उन्हें रंगीन रूप में देखने का चाव भी दर्शकों में बढ़ता गया। इस इच्छा को पूरा करने के लिए फ़िल्म बनाने वालों ने फिल्म की पट्टी को हाथ से रंगने की कोशिश की। नतीजतन सिनेमाघरों में परदे पर बीच-बीच में एक रंग की रीलें (जैसे सीपिया, गुलाबी, लाल, पीली, नीली देखने को मिली)।

    ईस्टमैन कलर यानी बहुरंगी फिल्म बनाने का पहला कदम 1933 में पुणे की प्रभात फ़िल्म कंपनी ने उठाया। निर्देशक वी. शांताराम ने फ़िल्म सैरंध्री को प्रभात स्टूडियो में शूट किया, लेकिन तब प्रोसेसिंग भारत में नहीं हो सकती थी। शांताराम फ़िल्म के प्रिंट लेकर जर्मनी गए। काम पूरा होने के बाद जब फिल्म भारत आई तो प्रभात फिल्म कंपनीवालों ने सिर पीट लिया। सैरंध्री के रंग एकदम धुंधले और उखड़े-उखड़े थे। यह अपने पास साधन न होने का नतीजा था, लेकिन भारतीय निर्माता फ़िल्म बनाने के मामले में चुप बैठने वाले नहीं थे।

    पहली सवाक् फ़िल्म 'आलम आरा' बनाने वाली इंपीरियल फ़िल्म कंपनी के आदेशिर माखान ईरानी ने देश में रंगीन फिल्म बनाने का प्रबंध किया और __ भारत की पहली पूरी तरह स्वदेशी रंगीन फ़िल्म 'किसान कन्या' 8 जनवरी, ___ 1938 को बंबई के मैजेस्टिक सिनेमा घर में रिलीज़ की। उस दिन सुबह से ही मैजेस्टिक सिनेमा की ओर जाने वाली सड़कों के दोनों ओर उत्साह से भरे लोगों की अपार भीड़ जमा हो गई थी। सिनेमाघर की सीटें खचाखच भरी हुई थीं। रंगीन फ़िल्म देखने का आकर्षण लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था।

    ___'किसान कन्या' हॉलीवुड के प्रोसेसर सिने कलर के तहत बनी थी। इस प्रोसेसर को इंपीरियल फ़िल्म कंपनी ने भारती और पूर्वी देशों के लिए खरीद लिया था। इसके विशेषज्ञ वोल्फ हीनियास की देखरेख में शूट और प्रोसेस की

    किसान कन्या

    गई 'किसान कन्या' भारत की अपनी पहली रंगीन फ़िल्म थी। फिल्म में रंग इतने अच्छे निखरे थे कि दृश्य वास्तविक लगते थे। निर्माता ने विषय भी ग्रामीण अंचल का चुना था ताकि परदे पर वन, पेड़, नदी, खेत और पहाड़ा की प्राकृतिक छटा खूबसूरती से आए। इस काम में भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री को वांछित सफलता मिली।

    'किसान कन्या' की कहानी गांव के एक लालची और कर जमींदार की थी, जो अपने जुल्मों से किसान-मजदूरों का जीना हराम किए हुए था। बाद में पाप के अंत के साथ फ़िल्म खत्म होती थी। फ़िल्म का निर्देशन मोती बी गिडवानी ने किया था। इसकी कहानी और पटकथा जियाउद्दीन ने लिखी थी जबकि सिनेरियो तैयार करने और संवाद लिखने का काम सआदत हसन मंटो ने किया था। संगीत रामगोपाल पांडे का था। रुस्तम ने फोटोग्राफी की थी।

    'किसान कन्या को रंगीन फोटोग्राफी की वजह से आशातीत सफलता तो मिली, पर कहानी के दृष्टिकोण से यह काफी कमजोर मानी गई। फ़िल्म की कहानी के हिसाब से किसाने कन्या नाम सही नहीं था। इसकी कहानी फ़िल्म की नायिका बंसरी पर अधिक देर केंद्रित नहीं रहती। पूरी फ़िल्म में गुंडा छाया हआ था। फिल्म में न ही पटकथा लेखक जियाउद्दीन और न संवाद लेखक सआदत हसन मंटो ने भारतीय ग्रामीण वातावरण को सही स्पर्श देने की कोशिश की। हालांकि मोती बी. गिडवानी का निर्देशन अच्छा था और गुंडे की भूमिका में उस जमाने के मशहूर अभिनेता गुलाम मोहम्मद ने अपने जीवन का सर्वोत्कृष्ट अभिनय किया था। वे पूरी फिल्म में छाए हए थे। जमींदार की पत्नी रामदेई के

    रूप में तब की चोटी की अभिनेत्री जिल्लोबाई ने अत्यंत संवेदनशील अदाकारी ___ की थी। बंगाली नायिका पद्मा देवी ने भी अपने हिस्से में आए काम को बड़ी खूबी और तन्मयता से निभाया था।

    समीक्षकों और फिल्म को समझने वालों ने इसे कमज़ोर कहानी वाली फ़िल्म बताया, जबकि यह दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचने में सौ प्रतिशत सफल रही। यह उस ज़माने के हिसाब से निर्माता के लिए अधिक बजट की फ़िल्म थी, इसलिए डरकर फ़िल्म निर्माताओं ने वर्षों तक रंगीन फ़िल्म बनाने का साहस नहीं किया। वर्षों बाद एम. भवनानी की फ़िल्म 'अजीत', जो प्रेमनाथ की पहली फ़िल्म थी, से रंगीन फ़िल्मों का ज़माना लौटा। महबूब खान की आन से रंगीन फ़िल्मों की शान और चमक उठी और फिर तो जमाना ही रंगीन फ़िल्मों का हो गया!

    हालांकि सत्यजित राय ने पचास के दशक में ही 'पथेर पांचाली' बनाकर इसकी शुरुआत कर दी थी लेकिन समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन की शक्ल ली-साठ के दशक के आखिरी वर्षों और सत्तर के दशक में। यह आंदोलन अस्सी के दशक में भी जारी रहा। इस धारा में सत्यजित राय के अलावा श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, ऋतित्वक घटक, अदूर गोपाल कृष्णन, एम.एस. सथ्यू गोविंद निहलानी जैसे फ़िल्मकार शामिल हुए।

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