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    मंदी और विश्व युद्ध विभीषिका झेलता तीस के दशक का हिंदी सिने जगत

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    मंदी और विश्व युद्ध विभीषिका झेलता तीस के दशक का हिंदी सिने जगत 

    नवीन पंत के अनुसार सन् तीस के आसपास बंकिम चंद्र के उपन्यासों और कहानियों पर 'कपाल कुंडला', 'रजनी' और 'गरीब' फ़िल्में बनीं। उसी के कुछ समय बाद शरत के उपन्यास देवदास पर फ़िल्म बनीं। इस फ़िल्म ने दर्शकों की  रुचि बदल दी।

    तीस के दशक में फिल्मों के प्रस्तुतिकरण और संवादों में जबरदस्त परिवर्तन आया। अनेक प्रतिभासंपन्न व्यक्ति फ़िल्म क्षेत्र में शामिल हुए। देवकी बोस, वी. शांता राम, सोहराब मोदी और महबूब ने अनेक अच्छी फ़िल्में बनाई। इनमें 'माया', 'अछूत कन्या', 'दुनिया न माने', 'अधिकार', 'विद्यापति' उल्लेखनीय हैं। बीस और तीस के दशक में कुछ समय तक वाक और मूक दोनों तरह की फिल्में बनती रहीं। फिर धीरे-धीरे मक फिल्मों का निर्माण कम हआ और अंत में बंद हो गया।

    तीस के दशक में फ़िल्मों के निर्माण में जबरदस्त वृद्धि हुई। प्रतिवर्ष 200 फिल्में बनने लगीं। यह स्वीकार किया जाने लगा कि फ़िल्में मनोविनोद का मुख्य साधन हैं। इस दौरान विश्वव्यापी मंदी से भारत को भी जूझना पड़ा। मंदी से उबरते ही दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। इन दोनों घटनाओं का फ़िल्म उद्योग पर भी प्रभाव पड़ा। युद्ध के कारण विदेशों से फ़िल्मों का आना अनिश्चित हो गया। फ़िल्मी कैमरों, यंत्रों और अन्य उपकरणों के आयात में भी बाधा आई। उद्योग की कमी के कारण चोर बाज़ारी का भी सामना करना पड़ा।।

    युद्ध के दौरान यह बात स्वीकार की गई कि फ़िल्में प्रचार और जनमत बनाने का प्रमुख साधन बन सकती है। सरकार ने सेना में भर्ती और उत्पाद बढ़ाने की प्रेरणा देने के लिए अनेक छोटी फ़िल्में बनाई। युद्ध प्रयत्नों को बढ़ावा देने के लिए अनेक निर्माण कार्य किए गए। इससे काफी पैसा आया।

    इससे दर्शकों और सिनेमाघरों की संख्या में वृद्धि हुई। फ़िल्म उद्योग में पैसा बरसने लगा। फ़िल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों के पारिश्रमिक में भी वृद्धि हुई। अनेक नयी कंपनियों ने फ़िल्म निर्माण कार्य शुरू किया। इनमें से कुछ ने नाम और पैसा दोनों कमाया और कुछ बंद हो गई। इसी समय सीमित मात्रा में विदेशों को फ़िल्मों का निर्यात शुरु हुआ। इसने भविष्य में संभावनाओं के द्वारा खोल दिए।

    इस काल में कुछ अन्य महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। सुलोचना और गौहर ने फ़िल्म क्षेत्र में प्रवेश किया। इसके बाद फ़िल्म क्षेत्र के द्वार औरतों के लिए खुले। इसके कुछ समय बाद मोहन भवानी ने प्रसिद्ध संस्कृत नाटक मृच्छकटिक पर आधारित फिल्म 'वसंतसेना' बनाई। इस फ़िल्म की नायिका इनासी राव थी और सह नायिका विख्यात लेखिका और समाज सेविका कमला देवी चट्टोपाध्याय थी। कमला देवी के फ़िल्म में भाग लेने से फ़िल्म जगत का माहौल बदला और शिक्षित एवं प्रतिष्ठित लोग फ़िल्मों की ओर आकृष्ट हुए। बड़े घरानों की लड़कियाँ फ़िल्मों में काम करने के लिए आने लगीं। लीला चिटनिस और शांता आप्टे के आगमन के बाद फ़िल्म जगत की छवि के बारे में लोगों के विचार बदलने लगे।

    इस काल की एक प्रमुख घटना अर्देशिर ईरानी द्वारा एक रंगीन फ़िल्म "किसान कन्या' (1937) का निर्माण था। ईरानी ने इसके अगले वर्ष एक और रंगीन फ़िल्म 'मदर इंडिया' बनाई। लेकिन लागत वृद्धि, रंगीन फ़िल्म तैयार करने की सुविधाओं के अभाव और अन्य कारणों से अन्य फ़िल्म निर्माताओं ने रंगीन फिल्म बनाने की विधा नहीं अपनाई। देश में बड़े पैमाने पर रंगीन फ़िल्मों का निर्माण पचास के दशक में शुरू हुआ।

    इस दौरान भारतीय फ़िल्में 14 से 18 रीलों की होती थीं। लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वह प्रेम लीला, भावुकता, सनसनीखेज घटनाओं से भरपूर होती थीं। नाटकों की तरह उनमें एक विदूषक या मसखरा भी होता था जो लोगों को अपनी विचित्र हरकतों, इशारों, संवादों और कार्यों से हंसाता था। गंभीर सामाजिक समस्याओं, दलितों, किसानों और जनजातियों के जीवन संघर्ष और समस्याओं पर यदा-कदा कोई फ़िल्म बनती थी।

    इस दौरान कुछ अच्छी फ़िल्में भी बनी। सन् 1943 में सोहराब मोदी की एक फ़िल्म 'किस्मत' एक सिनेमा हॉल में साढ़े तीन साल तक चली। उसने सभी पिछले रिकॉर्ड तोड़ दिए। अशोक कुमार देविका रानी की जोड़ी ने यही मिसाल 'अछूत कन्या' में पेश की। 'ज्वार भाटा' फ़िल्म के साथ दिलीप कुमार आए। देवानंद, राजकुमार, मधुबाला, नरगिस और सुरैया ने अपने उत्कृष्ट अभिनय से जनता के दिलों में जगह बना ली। शांताराम, जयश्री की जोड़ी भी फ़िल्म जगत पर छाई रही।

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