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    जितने लोगों को चरम सत्य मिला है, वह व्यक्तिगत खोज की निष्पति है, सामूहिक खोज की निष्पत्ति चरम सत्य नहीं है- ओशो

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    प्रश्न--आपने कहा कि विचार का जो चरम लक्ष्य है, वह शाश्वत की खोज है। तो क्या यह संभव नहीं है कि विरोधी विचारधारा के पश्चात शाश्वत सत्य, चिरंतन सत्य खोज में आया है, जो हमारे सामने है, गीता और वेद के रूप में है। इसके पीछे भी हजारों की चिंतन प्रक्रिया रही है, लगातार प्रयास के बाद यह फल निकला है। तो खोज शाखों की खोज हो गयी, हम उसको, सनातन को दोहराने के बजाय यह समाज जड़ न हो जाए, उसको बचाने की कोशिश हम कर रहे हैं। हम उसमें और एक करने की कोशिश करें बजाए इसके--

    ओशो--असल में शाश्वत की जो खोज है--शाश्वत कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी ने मटिठयां बांध ली हों और आपको दे दे। शाश्वत को पाने में खोज इतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना शाश्वत को पाना है। सच तो यह है कि खोज और प्राप्ति दो चीजें नहीं हैं। खोजने की प्रक्रिया मैं ही प्राप्ति है। तो अगर कृष्ण को मिल गया हो शाश्वत और आप खोज नहीं करते हैं, फिर कृष्ण को मान लेते हैं, तो आपको कभी नहीं मिल सकता। क्योंकि खोजने में ही मिलने की प्रक्रिया है। वह जो खोजने की बड़ी कोशिश है वही आपको रुपांतरिक करती है, और वहां पहंचती है जहां शाश्वत के दर्शन होते हैं। आप तो कृष्ण को मानेंगे। कृष्ण को शाश्वत मिला है या नहीं, या आप जान नहीं सकते। मिला भी हो सकता है, नहीं भी मिला हो सकता है। आपके लिए तो यह सिर्फ मानने की बात होगी। 

            यह विज्ञान के बाबत बिलकुल सच है, इप्लीकेशन की कोई जरूरत नहीं है विज्ञान में। क्योंकि जो मिल गया है, वह आब्जेक्टिव है। जैसे एक आदमी ने बिजली के बाबत खोज कर ली है, तो मुझे और आपको बिजली के बाबत फिर से खोज करने की कोई जरूरत नहीं है, नासमझी है वह। बिजली फिर आब्जेक्टिव है, बाहर है। आपने भी खोज ली है, तो पचास लोगों के सामने प्रयोग करके आप बता देते हैं कि यह रही बिजली। शाश्वत सत्य, जिसे हम धर्म का शाश्वत सत्य कहते है, चूंकि सब्जेक्टिव है, चाहे कृष्ण को मिला हो, चाहे और किसी को मिला हो--सामने रखकर बताया नहीं जा सकता है दूसरों के सामने, कि यह मुझे मिल गया है। और तुम पहचान लो कि इसे पाकर मैं आनंदित हो गया हं। 

            कृष्ण इतना ही कह सकते हैं कि जो मुझे मिला है, उसके विषय में मैं सबसे बात कर सकता हूं। वह मिलना तो बहुत आंतरिक है, और इतना आंतरिक है कि दूसरे व्यक्ति के लिए अर्जित हो नहीं पाता कभी भी। इसलिए धर्म की दनिया में, विज्ञान का अर्थ काम नहीं करेगा। धर्म की दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को खोज से गुजरना ही पड़ेगा--अनिवार्य है खोज से गुजरना। और कृष्ण जिस तरह पहुंचते हैं, उसी तरह उसे भी पहंचना पड़ेगा, अपनी ही खोज से। कृष्ण को जो मिला है, या कृष्ण जो कह रहे हैं तो बुद्ध को कोई जरूरत नहीं खोजन की--कृष्ण को मिल गया है, बुद्ध उसको पकड़ लें, मामला खत्म हो गया। लेकिन बुद्ध कितना ही पकड़ते हैं, उससे कुछ हल नहीं होता। बुद्ध को खोजना पड़ता है। बुद्ध को मिल गया है, तो महावीर को भी खोजने की जरूरत नहीं है--बुद्ध को पकड़ लें, बात खत्म हो जाती है। लेकिन नहीं, जितने लोगों को चरम सत्य मिला है, वह व्यक्तिगत खोज की निष्पति है, सामूहिक खोज की निष्पत्ति चरम सत्य नहीं है। 

            दो तरह के सत्य हैं--एक को हम आब्जेक्टिव दुथ कहें, जो हमसे बाहर है। उसे तो विज्ञान खोज रहा है। और दूसरा वह जो हमारे भीतर है, उसे धर्म खोज रहा है। विज्ञान के लिए आप कहते हैं कि बिलकुल ठीक है, डुप्लीकेशन बिलकुल बेमानी है। एब्सई है, कोई जरूरत नहीं है। हम आगे खोजते चले जाएंगे। इसलिए विज्ञान में तो एडीशन होता है और धर्म में कभी एडीशन नहीं होता। धर्म का आपको फिर से रिवीलेशन होता है। और वह रिवीलेशन उतना ही ओरिजनल है, जितना कभी किसी को हुआ हो, वह डुप्लीकेट नहीं है। क्योंकि आप किसी को मानकर कभी कहां पहुंचते नहीं है। आप खोजते हैं, खोजते हैं और पहुंचते हैं वह जो पहुंचना है, उतना आंतरिक है कि यह कभी सोशल प्रापर्टी बन नहीं पाता और बन ही नहीं सकता। 

            मेरा कहना कुल इतना ही है कि हम उसको सोशल प्रापर्टी बनाकर नुकसान में पड़ें हैं। पुराने शिक्षकों ने यह कह दिया है कि एक दफा मिल गया वेद को सत्य, तो बाकी लोगों का काम है कि वेद को मान लें। मोहम्मद का मिल गया था, फिर बाकी लोगों का काम है कि मोहम्मद को मान लें। मेरा कहना यही है किसी को भी सत्य मिल गया हो, बाकी लोगों के मानने से नहीं मिल जाएगा। बाकी लोगों को भी उस प्रक्रिया से खोजने निकलना ही पड़ेगा, जो एकदम आंतरिक और व्यक्तिगत है, इसका किसी से ट्रांसफरेबल नहीं है दृथ। 

            चरम सत्य कभी हस्तांरित नहीं होती है। न कभी हो सकता है। उसका कोई उपाय नहीं है। अगर मझे मिल गया है, तो मैं लाख उपाय करूं तो आपको नहीं दे सकता हूं। या आपको मिल गया है तो आप मुझे नहीं दे सकते। अगर यही संभव होता, तो दुनिया में एक धर्म का बच जाता, जरूरत न थी पचास धर्मों की। और दुनिया के सारे लोगों ने जैसे विज्ञान को स्वीकार कर लिया है--क्योंकि कोई सवाल नहीं झगड़े का कि हिंदू की केमिस्ट्री अलग हो, मुसलमान की केमिस्ट्री अलग हो। केमिस्ट्री के बाबत हम राजी हो जाएंगे, चाहे कोई हिंदू हो, चाहे कोई मसलमान हो। एक एक्सपेरीमेंट करते हैं, आब्जेक्ट दुथ का, हम राजी हो जाते हैं। लेकिन धर्म की खोज व्यक्तिगत है। तो रिलीजन के साथ उपद्रव यह है कि दुथ सब्जेक्टिव है, इनर है। 

    - ओशो 

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