प्रश्न--ओशो. ऐसे व्यक्ति जिनके हमें दर्शन हुए, जैसे गांधी, टैगोर, अरविंद, इनकी प्रतिभा को आप संपन्न मानते हैं? उनकी प्रतिभा जो भी, वे देश के लिए, समाज के लिए, उनके खुद के लिए वह संपन्न थी या नहीं?
प्रश्न--ऐसे व्यक्ति जिनके हमें दर्शन हुए, जैसे गांधी, टैगोर, अरविंद, इनकी प्रतिभा को आप संपन्न मानते हैं? उनकी प्रतिभा जो भी, वे देश के लिए, समाज के लिए, उनके खुद के लिए वह संपन्न थी या नहीं?
ओशो--दोतीन बातों पूछ रहें हैं आप। पहली बात तो यह है कि प्रतिभा सदा उस व्यक्ति के लिए सार्थक और संपन्न होती है, जिसकी है। और दूसरे के लिए सदा बांधने वाली सिद्ध होती है, रोकने वाली सिद्ध होती है। प्रतिभा जो है, वह जिस व्यक्ति के भीतर है, उसके लिए तो समृद्धि और सार्थकता देने वाली होती है। लेकिन दूसरों को सदा बांधने वाली और रोकने वाली सिद्ध होती है। अब तक ऐसा होता रहा है। जैसे गांधी जी की प्रतिभा गांधीजी के लिए तो आनंद है, लेकिन गांधी वादियों के लिए बिलकुल कारागृह है। उनको बांध दिया बुरी तरह, कस दिया बुरी तरह। तो, मैं जिस प्रतिभा की बात कर रहा हूं, मेरा कहना यह है कि ऐसी मनोदशा होनी चाहिए समाज की कि प्रतिभा का आदर हो, स्वागत हो, सम्मान हो, अनुमान न हो। उसके पीछे कोई न जाए। क्योंकि जब भी आप प्रतिभाशाली के पीछे गए, तो आप अपनी हत्या करते हैं। आप मिटते हैं। आपका व्यक्तित्व गया। आप गए। और इसलिए अनुयायी बनाना मैं आत्मघातक मानता हूं किसी का भी बड़े से बड़े का भी। इसलिए दुनिया में हमेशा जो बड़े लोग होते हैं, जैसा अब तक हुआ है, तो उसके पीछे दस पीछे साल के लिए बड़े अंधेरे का युग आता है। उसका कारण है। वे बड़े लोग इस तरह बुद्धि को कुंठित कर जाते हैं कि पांचपचास साल लग जाते हैं। उससे छूटने में और बचने में। इधर गांधी से बचने में पचास साल लगेंगे इस मुल्क को। तब कहीं झंझट छूटेगी। और गांधी से छूटने की जरूरत न पड़ती, अगर आप न बंधते।
यह सवाल गांधी से छूटने का नहीं है, आप बंध गये हैं इसलिए उपद्रव है। गांधी ठीक है और वह अदभुत व्यक्ति हैं, बात खत्म हो गयी। अरविंद ठीक है, और रवींद्रनाथ ठीक है और ऐसे हजार लोग होने चाहिए। फिर जब हम पूछते हैं यह बात, हमारे मन मैं खयाल ही यह होता है कि क्या इनका अनुगमन किया जाए? गांधी अगर ठीक है तो हम पूछते हैं इसलिए क्या इनके पीछे चले? मैं मानता हूं कि कोई भी ठीक हो सकता है, लेकिन पीछे चलना कभी ठीक नहीं है। और ठीक होना व्यक्तिगत या निजी घटना है। पीछे नहीं जाना है आपको। पीछे गए कि गए, बुरी तरह गए। अब तक ऐसा हुआ है कि बड़ी प्रतिभाओं से फायदा तो कम, नुकसान ही ज्यादा हुआ है। फायदा हो सकता था, अगर हमने इनकी इंडिविजुअल यूनिकनेस को स्वीकार किया होता। हमने कहा होता--राम, राम हैं, बहुत अदभुत हैं। और कृष्ण, कृष्ण हैं, बहत अदभूत हैं। बुद्ध बुद्ध हैं, बहत अदभुत हैं। और सौभाग्य है कि पृथ्वी पर हुए और हमने उन्हें देखा और जाना। लेकिन हम इस चक्कर में पड़ गए कि हम बुद्ध कैसे हो जाए। हम एक नकली बुद्ध हो सकते हैं ज्यादा से ज्यादा, और कुछ भी नहीं मेरी दृष्टि में कोई दो आदमी न तो एक जैसे हैं, और न ही हो सकते हैं, न कोई संभावना है। कोई मार्ग भी नहीं है।
अगर किसी व्यक्ति ने दूसरे जैसे होने की कोशिश की, तो वह सिर्फ आवरण ओढ़ सकता है। और तब तक के सारे महापुरुष दुखदायी सिद्ध हुए, सुखदायी हो सकते थे, हो नहीं पाए। और जहरीले सिद्ध हुए। क्योंकि हमारी पकड़ यही थी कि उनका अनुगमन करो, उनको मानकर चलो, उन जैसे हो जाओ। फिर दसरी बात यह है कि प्रतिभाशाली जो भी कह देती है, वह प्रतिभाशाली है, इसलिए ठीक हो जाता है। ठीक होना जरूरी नहीं है। प्रतिभा बिलकुल गलत हो सकती है, और फिर भी प्रतिभा हो सकती है। यानी कुछ ऐसा नहीं है जरूरी कि प्रतिभा है किसी के पास, तो उसका ठीक होना अनिवार्य है। प्रतिभा पूरी हो सकती और बिलकुल गलत हो सकती है। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? और बहुत प्रतिभाएं गलत हुई हैं। वे प्रतिभाएं तो इतनी आकर्षित करती हैं, अभिभूत कर लेती हैं। लेकिन वे बिलकुल गलत हैं।

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