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    सच्चा प्रजासेवक

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    सच्चा प्रजासेवक 

    हजरत अबूबकर का विश्वास था कि निर्धन से निर्धन नागरिक को जीवनयापन के लिए जितनी सुविधाएँ उपलब्ध हैं उससे अधिक सुविधाएँ लेने का अधिकार राज्य के किसी उच्च कर्मचारी को नहीं है। इसलिए राज्य के कोषालय से अपने खरच के लिए वे केवल दो दिरहम लेते थे।

    हजरत की इस जान-बूझकर बुलाई गई निर्धनता से उनकी पत्नी तंग आ गई थी। उन्हें यह बिलकुल पसंद न था कि जिस व्यक्ति का पूरे राज्य में सम्मान हो उसकी पत्नी गरीबी और परेशानी से जीवनयापन करे। एक दिन परेशान होकर उन्होंने कह ही दिया-"यह भी कोई व्यवस्था है जब देखो तब सूखी रोटियाँ। ऐसा प्रयत्न कीजिए न, किसी दिन कुछ मिठाइयों की व्यवस्था भी हो सके तो भोजन कुछ अच्छा लगे।"

    "खाना बनाने का काम तुम्हारे जिम्मे ही है। तो थोड़ा-थोड़ा बचाकर मिठाई की व्यवस्था क्यों नहीं कर लेती?" उनकी पत्नी ने सुझाव पर विचार किया तथा अपने दैनिक भोजन में से प्रतिदिन कुछ न कुछ बचत प्रारंभ कर दी। कुछ दिनों की निरंतर बचत से एक दिन के भोजन में मिठाई की व्यवस्था हो सके, इतनी बचत हो जाने पर उसने एक दिन बड़े उल्लास के साथ अपने पति को भोजन के साथ-साथ वह मिष्टान्न भी परोसा। पति को प्रेमपूर्वक भोजन कराकर पत्नी ने भोजन किया। अबूबकर ने मिठाई के बारे में जानना चाहा तो उनकी पत्नी ने गर्वपूर्वक बचत की बात बताई।

    बचत की बात सुनकर अबूबकर प्रसन्न हुए, उन्होंने सोचा यह देन परमपिता परमात्मा की है। ऐसा करने से जो बचत होगी, उससे भी जनता की सेवा की जा सकेगी, मेरी गरीब जनता मुझसे जितना भी लाभ उठा सकती है वह लाभ क्यों न उठाए और मैं भी शक्तिभर उनकी सेवा कर सकूँ, भगवान मुझे ऐसा साहस प्रदान करे, ऐसा सोचकर वह पत्नी से बोला-"जनता रूखा खाकर जिस-तिस प्रकार अपना पेट पालती है, रूखा-सूखा भोजन भी वह कड़ी मशक्कत करने के बाद ही पाती है, तब फिर सोचो तो हमें मिष्टान्न जैसे स्वादिष्ट भोजन का अधिकार कहाँ है।"

    "फिर तो दो दिरहम की रकम हम लोगों के गुजारे के लिए अधिक है।" इतना कहकर दूसरे दिन से अबूबकर ने केवल डेढ़ दिरहम ही लेना शुरू कर दिया।

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