अतिथि देवो भव
अतिथि देवो भव
शकंभर राज्य का मौरका गाँव, दस्युओं और अपराधियों का गढ़ समझा जाता था। अपने प्राचीन इतिहास में इस गाँव ने हत्या, डाकेजनी, छीना-झपटी, चोरी, बदमाशी के अतिरिक्त कोई धर्म-कर्म के दृश्य न देखे थे। अच्छे आदमी वहाँ जाने से भी डरते थे।
एक दिन मना करने के बाद भी आचार्य पुननर्वा के प्रिय शिष्य जातबंध धर्म-प्रसार के लिए मौरका पहुँच गए। जातबंध गुरुकुल से निकला सद्यस्नातक था। उसकी आयु कोई २५ से अधिक न थी। पर उसे धर्म की शक्ति पर पूरा भरोसा था। जातबंध दुष्टता को प्रेम और आत्मीयता से जीतने की कला में बड़ा पटु था। ग्राम-प्रवेश करते ही उसे कुछ नवयुवकों ने पकड़ लिया और दस्युराज सुरसेन के पास ले गए। सूरसेन बड़ा नास्तिक और क्रूर व्यक्ति था। उसने कड़क कर पूछा-"युवक तुम यहाँ किसलिए आए हो. राज्याध्यक्ष के गप्तचर लगते हो, साफ-साफ बताओ अन्यथा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा।" जातबंध ने कोई उत्तर न दिया। केवल उसकी हिंसक आँखों की ओर प्यार और कोमल दृष्टि से देखता रहा। कोई उत्तर न पाकर सूरसेन की क्रोधाग्नि भभक उठी। उसने आज्ञा दी इसे खंभे से बाँध दो और जब तक प्राण न निकल जाएँ इसे कुछ खाने-पीने को मत दो।
एक दिन एक रात उसी स्थिति में बँधे जातबंध को आश्वस्त किया सूरसेन की पुत्री वारिजाता ने, किंतु जैसे ही वह भोजन लेकर वहाँ पहुँची सूरसेन स्वयं वहाँ आ पहुँचा। उसने कड़क कर कहा"लड़की तू यहाँ से हट, मैं इसका सर अभी काटकर अलग किए देता हूँ।" किंतु वारिजाता सामने आ गई और बोली-"पिताजी! अतिथि पर हाथ उठाना पाप है।" सूरसेन ने तलवार उठाई कि वारिजाता फिर
सामने आ गई और बोली-"जब तक आप मुझे नहीं मार देते आपको __ आगे न बढ़ने दूंगी।" उठा हुआ हाथ वहीं रुक गया। पुत्री मृत्यु का
स्मरण करुणा बनकर फूटा और उसने सूरसेन का हृदय परिवर्तित कर दिया। उसकी दुष्प्रवृत्ति श्रद्धा में बदल गई और एक दिन यही गाँव राज्य का सर्वश्रेष्ठ नगर घोषित हुआ।
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