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    आस्तिक से मेरा मतलब है कि जिसके मन में कोई निषेध न हो - ओशो

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    आस्तिक से मेरा मतलब है कि जिसके मन में कोई निषेध न हो

    एक झेन फकीर अपने घर के बाहर बैठा हुआ है। कोई उससे आकर पूछता है, क्या कर रहे हो? वह कहता है, धूप ने बुलाया था तो बाहर आ गया है। वह यह नहीं कहता कि मुझे सर्दी लग रही थी इसलिए बाहर आ गया। वह कहता है, धूप ने बुलाया था तो बाहर आ गया हूं। वह बैठा रहा और धूप लेता रहा। थोड़ी देर बाद उठा और भीतर जाने लगा। पूछा कहां जा रहे हो? कहा, घर की छाया बुलाती है। यह नहीं कह रहा है कि मैं छाया में जाता हूं। कहता है कि घर की छाया बुला रही है। अब यह आदमी बिलकुल पार्टीसिपेट कर रहा है। इन अर्थों में पार्टीसिपेट कर रहा है कि यह जैसे है ही नहीं। धूप बुलाती है तो धूप में चला जाता है, छाया बुलाता है तो छाया में चला जाता है। जिंदगी ने बुलाया तो जिंदगी में आ गया, मौत ने बुलाया तो वहां जाने को राजी है यहां आना भी सुखद है, वहां जाना भी सुखद है। इस स्थिति को ही मैं मुक्ति कहता हूं। पार्टीसिपेट जहां टोटल है, वहां मुक्ति है। वहां अब कोई बंधन नहीं है, क्योंकि पार्टीसिपेट करता है। ये दबाव मुझ पर बंधन डाल ही नहीं सकते। अब कोई उपाय नहीं है मुझे बांधने का। और ऐसी जीवन मुक्ति पूरे जीवन को स्वीकार करती है। उसमें कोई निषेध नहीं है--न पदार्थ का, न परमात्मा का, न शरीर का, ना आत्मा का। न इंद्रियों का है, न भोग का। निषेध है ही नहीं। और जिसके चित्त में निषेध नहीं है, उसे मैं आस्तिक कहता हूं। आस्तिक से मेरा मतलब है कि जिसके मन में कोई निषेध न हो। 

    - ओशो

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