असुरक्षा से संबोधि - ओशो
असुरक्षा से संबोधि
एक फकीर था बोधिधर्म। वह हमेशा दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता था। सुननेवाले पीछे बैठे, तो वह उनकी तरफ मुंह करता ही नहीं था। चीन का सम्राट उससे मिलने आया, तो वह दीवाल की तरफ मुंह किए बैठा हुआ था। सम्राट पीछे बैठा था। उसने कहा, यह कौन सा ढंग है? कृपा करके इस तरफ मुंह करिए। उसने कहा, बहत अनुभव के बाद दीवाल की तरफ मुंह करना सीखा हं। सम्राट ने पूछा, मतलब नहीं समझा। उसने कहा, आदमियों की भीड़ में मैंने दीवाल ही देखी है, और तब बड़ी नाराजगी होती थी। तो फिर मैं दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता हैं। अब नाराजगी नहीं होती; क्योंकि अब दीवाल ही है, अब तो कोई बात नहीं है। लेकिन जब आदमी दीवाल की तरह मालूम पड़ते हैं, तब बड़ा कष्ट होता है। वह जिंदगी भर दीवाल की तरफ मुंह करके ही बोलता रहता।
उसने समाट से कहा, मैं तुम पर दया करके इस तरफ मुंह किए हुए हूं, नहीं तो मैं बड़ा नाराज हुआ हूं। क्योंकि आदमी को दीवाल मानने में कष्ट है, और भीड़ तो बिलकुल ही दीवाल है। वहां कोई है ही नहीं, जो आपको सुन रहा है, समझ रहा है, अथवा आपसे जड़ रहा है। पर आप किससे बोल रहे हैं? किसी से नहीं बोल रहे हैं। आप खुले आकाश से बोल रहे हैं, भीड़ सुन रही है। तो बोला तो जा सकता है निकट ही। और भी बड़ी कठिनाई है। क्योंकि जो हम बोलते हैं, वह बोलनेवाले पर ही निर्भर नहीं होता है; आधा तो सुननेवाले पर निर्भर होता है; क्योंकि मैं क्या बोलूंगा जयराज जी से, वह आधा उन पर निर्भर होता है, और विजय जी से क्या बोलूंगा वह आधा उन पर निर्भर होगा। वह मुझसे क्या निकलवा लेंगे, वह मुझे किस कोने में खड़ा कर देंगे, मझे क्या कहना पड़ेगा, यह उन पर निर्भर है। भीड़ कुछ भी निकलती है, न निकाल सकती है। तो एक-एक व्यक्ति के एनकाउंटर में कुछ अर्थ है।
- ओशो
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