मंदबुद्धि वरदराज
मंदबुद्धि वरदराज
संस्कृत-व्याकरण के सारभूत ग्रंथ लघुसिद्धांत कौमुदी को कौन नहीं जानता। लघुसिद्धांत कौमुदी संस्कृत व्याकरण का वह ग्रंथ है जिसका अध्ययन किए बिना संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं होता और पढ़ लेने पर संस्कृत व्याकरण की योग्यता में संदेह नहीं रहता।
इस विलक्षण ग्रंथ के रचयिता श्री वरदराज जी अपने छात्र काल में वरदराज अर्थात बैलराज कहे जाते थे और एक तरह से उनका यह विकृत नाम ठीक भी था। वरदराज इतना मंदबुद्धि था कि पाठशाला में पढ़ाया हुआ एक ही अक्षर न तो समझ पाता था और न याद कर पाता था। अपनी इस मंदबुद्धिता के लिए वह अपने सहपाठियों के बीच एक मनोरंजक कुतूहल बना रहता था। और आखिर जब वह प्रारंभिक कक्षा में ही तीन-चार बार असफल हुआ तो सबने मिलकर उसका नाम वरदराज रख दिया।
एक दिन वरदराज अध्ययन की असफलता से निराश होकर घर से निकल कर चल दिया। दिनभर चलने के बाद वह संध्या समय एक गाँव के निकट एक पुराने मंदिर के चबूतरे पर पड़ा रहा। रातभर उसे नींद न आई और वह यह सोचकर रोता रहा कि भगवान ने मुझे ऐसी मंद बुद्धि दी कि मैं कुछ भी पढ़-लिख न सका। मेरा जीवन व्यर्थ है। बिना विद्या के मैं मनुष्य होकर भी एक पशु के समान ही हूँ। धिक्कार है मेरे जीवन को। जहाँ मेरे मित्र पढ़-लिखकर यश और ऐश्वर्य कमाएँगे वहाँ मैं जीविका के लिए मिट्टी ढोता या घास काटता मर जाऊँगा।न मैं धर्म का अध्ययन कर सकता हूँ और न साहित्य का रस पा सकता हैं। इसी सोचविचार और रोने-धोने में वरदराज की रात बीत गई। किंतु कहाँ जाए, क्या करे, यह निश्चित न कर सकने के कारण वह अभी पड़ा ही था कि सहसा उसकी दृष्टि दीवार पर चढ़ते हुए पतंगे पर पड़ी। पतंगे के पर कमजोर थे और पैरों से चलकर चढ़ रहा था।
वरदराज ने देखा कि वह पतंगा बार-बार चढ़ता और गिरता है। किंतु जितनी बार गिरता है उतनी बार फिर चढ़ता है और पहले से कुछ अधिक ऊपर जाता है। वरदराज उसका गिरना-चढ़ना देखता रहा और अंत में उसने देखा कि बीस बार गिरने के बाद वह लगनशील पतंगा अपने गंतव्य दीवार की कगार पर पहुँच ही गया। वरदराज ने इस दृश्य से शिक्षा ली और वह पूरी तत्परता और आत्मविश्वास के साथ अध्ययन में जुट गया, जिससे उसके लिए सफलता के द्वार खुलते और मिलते चले गए और वह अल्पकाल ही में संस्कृत का उद्भट विद्वान बन गया।
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