• Latest Posts

    हृदय में कौंधती हुई बिजली : मीरा- ओशो

    हृदय में कौंधती हुई बिजली : मीरा- ओशो

    हृदय में कौंधती हुई बिजली : मीरा- ओशो

          मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। शायद ‘शास्त्र’ कहना भी ठीक नहीं।

          नारद ने भक्ति सूत्र कहे; वह शास्त्र है। वहाँ तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहाँ भक्ति का दर्शन हैं।
    मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम्हें रेखाबद्ध तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहाँ नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है। जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।

           प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो सोच-विचार खाने को तैयार हों : जो सिर गँवाने को उत्सुक हों। उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में, विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।

          तो मीरा के शास्त्र को शास्त्र कहना भी ठीक नहीं। शास्त्र कम है, संगीत ज्यादा है। लेकिन संगीत ही तो केवल भक्ति का शास्त्र हो सकता है। जैसे तर्क ज्ञान का शास्त्र बनता है, वैसे संगीत भक्ति का शास्त्र बनता है। जैसे गणित आधार है ज्ञान का, वैसे काव्य आधार है भक्ति का। जैसे सत्य की खोज ज्ञानी करता है; भक्त सत्य की खोज नहीं करता। भक्त सौंदर्य की खोज करता है। भक्त के लिए सौंदर्य ही सत्य है। ज्ञानी कहता है : सत्य सुंदर है। भक्त कहता है : सौंदर्य सत्य हैं।

          रवीन्द्रनाथ ने कहा है : ब्यूटी इज़ ट्रुथ। सौंदर्य सत्य है। रवीन्द्रनाथ के पास भी वैसा ही हृदय है जैसा मीरा के पास; लेकिन रवीन्द्रनाथ पुरुष हैं। गलते-गलते पुरुष की अड़चने रह जाती है; मीरा जैसे नहीं पिघल पाते। खूब पिघले। जितना पिघल सकता है पुरुष, उतना पिघले; फिर भी मीरा जैसे नहीं पिघल पाते।
    मीरा स्त्री है। स्त्री के लिए भक्ति ऐसे ही सुगम है, जैसे पुरुष के लिए तर्क और विचार।

          वैज्ञानिक कहते हैं : मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में विभाजित हैं। बाएँ तरफ जो मस्तिष्क हैं, वह सोच-विचार करता है; गणित, तर्क, नियम, वहाँ सब श्रृंखला बद्ध हैं। और दाईं तरफ जो मस्तिष्क है, वह सोच-विचार नहीं है; वहाँ भाव है; वहाँ अनुभूति है। वहाँ संगीत की चोट पड़ती है। वहाँ तर्क का कोई प्रभाव नहीं होता। वहाँ लयबद्धता पहुँचती है। वहाँ नृत्य पहुँच जाता है; सिद्धांत नहीं पहुँचते।

          प्रेम में कोई विधि नहीं होती, विधान नहीं होता। प्रेम की क्या विधि और क्या विधान ! हो जाता है बिजली की कौंध की तरह। हो गया तो हो गया। नहीं हुआ तो करने का कोई उपाय नहीं है।

          पुरुषों ने भी भक्ति के गीत गाए हैं, लेकिन मीरा का कोई मुकाबला नहीं है : क्योंकि मीरा के लिए, स्त्री होने के कारण जो बिलकुल सहज है, वह पुरुष के लिए थोड़ा आरोपित-सा मालूम पड़ता है। पुरुष भक्त हुए, जिन्होंने अपने को परमात्मा की प्रेयसी माना, पत्नी माना; मगर बात कुछ अड़चन भरी हो जाती है। संप्रदाय है ऐसे भक्तों का, बंगाल में आज भी जीवित पुरुष हैं, लेकिन अपने को मानते है कृष्ण की पत्नी। रात-स्त्री जैसा श्रृंगार करके, कृष्ण की मूर्ति को छाती से लगाकर सो जाते हैं। मगर बात में कुछ बेहूदापन लगता है। बात कुछ जमती नहीं। ऐसा भी बेहूदापन लगता है जैसे कि तुम, जहाँ जो नहीं होना चाहिए, उसे जबरदस्ती बिठाने की कोशिश करो, तो लगे।

          पुरुष पुरुष है; उसके लिए स्त्री होना ढोंग ही होगा। भीतर तो वह जानेगा ही मैं पुरुष हूँ। ऊपर से तुम स्त्री के वस्त्र भी पहन लो और कृष्ण की मूर्ति को हृदय से भी लगा लो-तब भी तुम भीतर के पुरुष को इतनी आसानी से खो न सकोगे। यह सुगम नहीं होगा।

          स्त्रियाँ भी हुई हैं, जिन्होंने ज्ञान के मार्ग से यात्रा की है, मगर वहाँ भी बात कुछ बेहूदी हो गई। जैसे ये पुरुष बेहूदे लगते हैं और थोड़ा-सा विचार पैदा होता है कि ये क्या कर रहे है ! ये पागल तो नहीं हैं;- ऐसे ही ‘लल्ला’ कश्मीर में हुई, वह महावीर जैसे विचार में पड़ गई होगी; उसने वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई।। लल्ला में भी थोड़ा-सा कुछ अशोभन मालूम होता है। स्त्री अपने को छिपाती है। वह उसके लिए सहज है। वह उसकी गरिमा है। वह अपने को ऐसा उघाड़ती नहीं। ऐसा उघाड़ती है तो वेश्या हो जाती है।

         लल्ला ने बड़ी हिम्मत की, फेंक दिए वस्त्र। असाधाराण स्त्री रही होगी; लेकिन थोड़ी-सी अस्वाभाविक मालूम होती है बात। महावीर के लिए नग्न खड़े हो जाना अस्वाभाविक नहीं लगता; बिलकुल स्वाभाविक लगता है। ऐसी ही बात है।

    -ओशो

    पद घुँघरू बाँध

    No comments