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    तुम्हारे नृत्य का गुण… - ओशो


    तुम्हारे नृत्य का गुण…


          नर्तन अकेला ही एक कृत्य है, जिसमें कर्ता और कृत्य बिलकुल एक हो जाते हैं। कोई आदमी चित्र बनाये, तो बनानेवाला अलग और चित्र अलग हो जाता है। कोई आदमी कविता बनाये, तो कवि और कविता अलग हो जाती है। कोई आदमी मूर्ति गढ़े, तो मूर्तिकार और मूर्ति अलग हो जाती है। सिर्फ नर्तन एक मात्र कृत्य है, जहां नर्तक और नृत्य एक होता है; उन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। अगर नर्तक चला जाएगा—नृत्य चला जाएगा। और, अगर नृत्य खो जाएगा तो उस आदमी को, जिसका नृत्य खो गया,नर्तक कहने का कोई अर्थ नहीं। वे दोनों संयुक्त हैं।

          इसलिए परमात्मा को नर्तक कहना सार्थक है। यह सृष्टि उससे भिन्न नहीं है। यह उसका नृत्य है। यह उसकी कृति नहीं है। यह कोई बनायी हुई मुर्ति नहीं है कि परमात्मा ने बनाया और वह अलग हो गया। प्रतिपल परमात्मा इसके भीतर मौजूद है। वह अलग हो जाएगा तो नर्तन बंद हो जाएगा। और ध्यान रहे कि नर्तन बंद हो जाएगा तो परमात्मा भी खो जाएगा; वह बच नहीं सकता। फूल—फूल में, पत्ते—पत्ते में, कण—कण में वह प्रकट हो रहा है। सृष्टि कभी पीछे अतीत में होकर समाप्त नहीं हो गयी; प्रतिपल हो रही है। प्रतिपल सृजन का कृत्य जारी है। इसलिए सब कुछ नया है। परमात्मा नाच रहा है—बाहर भी, भीतर भी।

          आत्मा नर्तक है—इसका अर्थ है कि तुमने जो भी किया है, तुम जो भी .कर रहे हो और करोगे, वह तुमसे भिन्न नहीं है। वह तुम्हारा ही खेल है। अगर तुम दुख झेल रहे हो तो यह तुम्हारा ही चुनाव है। अगर तुम आनंदमग्न हो, यह भी तुम्हारा चुनाव है; कोई और जिम्मेवार नहीं है।

          आत्‍मा का स्वभाव नर्तन है, और आत्मा दो तरह से नाच सकती है। इस तरह से नाच सकती है कि चारों तरफ दुख का जाल पैदा हो जाए। चारों तरफ उदासी भर जाए, चारों तरफ अंधकार पैदा हो। और,आत्मा ऐसे भी नाच सकती है कि चारों तरफ किरणें नाचने लगें और चारों तरफ फूल खिल जाएं।

          संन्यास आनंद का नृत्य है और गृहस्थ दुख का नृत्य! नरक कहीं और नहीं। तुम इस आशा में मत बैठे रहना कि नरक कहीं और है। नरक तुम्हारे गलत नाचने का ढंग है, जिससे दुख पैदा होता है। स्वर्ग भी कहीं और नहीं है। स्वर्ग तुम्हारे ठीक नाचने का ढंग है जिससे तुम जहां भी हो, वहां स्वर्ग पैदा हो जाता है। स्वर्ग तुम्हारे नृत्य का गुण है। नर्क भी तुम्हारे नृत्य का गुण है।

          तुम नाचना नहीं जानते; लेकिन सदा तुम सोचते हो कि आंगन टेढ़ा है, इसलिए नाच ठीक नहीं हो रहा है। आंगन टेढ़ा जरा भी नहीं है और, जिसे नाचना आता है, टेढ़ा आंगन भी ठीक है, कोई फर्क नहीं पडता। और जिसे नाचना नहीं आता, उसके लिए बिलकुल ठीक ज्यामिती से बनाया गया नब्बे कोण का आंगन भी…। नाचना नहीं आ जाएगा इससे।

          शिकायत बंद करो। अपनी तरफ देखो और जहां—जहां तुम्हें दुख पैदा होता है, खोजो गौर से, तुम्हारे भीतर ही उसके कारण मिलेंगे। उन कारणों को छोड़ दो; क्योंकि जिनसे दुख पैदा होता है, उन कारणों को किये जाने का प्रयोजन क्या है? जिनसे सिर्फ जहर के फल लगते हों, उन बीजों को तुम क्यों बोये. चले जाते हो? हर वर्ष क्यों फसल काट लेते हो उनकी? बेहतर तो यह होगा कि तुम फसल ही न बोओ, तो भी ठीक रहेगा। खाली पडा रहे खेत तो भी बुरा नहीं है। और अच्छा यह होगा कि कुछ दिन खाली ही पड़ा रहे, ताकि पुराने सब बीज दग्ध हो जाए ताकि तुम नये बीज बो सको।

    -ओशो

    शिव–सूत्र, प्रवचन–6

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