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    धन्य है इस न्यायप्रियता को


    धन्य है इस न्यायप्रियता को 

    तक्षशिला के बौद्ध राजा आंभीक से स्वागत पाकर सिकंदर सुस्ताने के लिए तक्षशिला में ठहर गया। एक दिन सायंकाल वह घूमता-घूमता एक गाँव की तरफ निकल गया। वहाँ एक पंचायत हो रही थी। सिकंदर पंचों का न्याय देखने ठहर गया।

    पंचायत की कार्यवाही प्रारंभ हुई। वादी बोला-"मैंने प्रतिवादी से एक खेत खरीदा। हल जोतते समय जमीन के नीचे मुझे एक सोने के सिक्कों से भरा घड़ा मिला। मैंने केवल जमीन खरीदी थी, उसके नीचे की संपत्ति नहीं। इन मुद्राओं पर प्रतिवादी का ही अधिकार है मेरा नहीं। किंतु वह मुहरें लेने से इनकार कर रहा है। कृपा कर न्याय किया जाए और प्रतिवादी से स्वर्ण मुद्राएँ लेने को कहा जाए।"

    आज्ञा पाकर प्रतिवादी बोला-"मैंने जमीन बेच दी। उसमें उगने वाली फसल की तरह उसकी अंतरस्थ संपत्ति से भी मेरा कोई सरोकार नहीं। उन मुहरों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। वादी से कहा जाए कि वह सारा स्वर्ण अपने पास रखे।"

    कोई भी पक्ष उन स्वर्ण मुद्राओं को लेने को तैयार न था। पंच बड़े असमंजस में पड़े ! बड़ी देर विचार-विमर्श के बाद सरपंच ने फैसला दिया। 

    सरपंच बोला-"वादी के विवाह योग्य लड़की और प्रतिवादी के विवाह योग्य लड़का है। वादी अपनी लड़की का विवाह प्रतिवादी के लड़के के साथ कर दे और वह सारा स्वर्ण वर-कन्या को उनके जीवन विकास के लिए प्रदान कर दे!"

    वादी-प्रतिवादी ने पंचायत का फैसला मान लिया और लड़की-लड़के का विवाह कर सारा स्वर्ण उनको दान कर दिया।

    सिकंदर चुपचाप यह सारी कार्यवाही देखता रहा। भारतीयों का त्यागपूर्ण जीवन देखकर उसकी आत्मा कह उठी-"एक यह गरीब ग्रामीण जन हैं जो पाए हुए स्वर्ण को अपने पास नहीं रखना चाहते और एक तू है जो राजा होकर भी दूसरों की धन-दौलत छीनने के लिए रक्तपात करता फिर रहा है। धिक्कार है तेरे लोभ और तेरी तृष्णा को।" तब सिकंदर को भगवान बुद्ध की धरती की महानता का एहसास हुआ "

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