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    दार्शनिक की विजय

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    दार्शनिक की विजय 

    एक दिन देवलोक से एक विशेष विज्ञप्ति निकाली गई। जिसने आकाश, पाताल तथा पृथ्वी तीनों लोकों में हलचल मचा दी। प्रसारण इस प्रकार था

    "अगले सात दिन तक लगातार श्री चित्रगुप्त जी की प्रयोगशाला के मुख्य द्वार पर कोई भी प्राणी असुंदर वस्तु देकर उसके स्थान पर सुंदर वस्तु प्राप्त कर सकेगा।शर्त यही है कि वह विधाता की सत्ता में विश्वास रखता हो। इसकी परीक्षा वहीं कर ली जावेगी।"

    बस फिर क्या था, सभी अपनी-अपनी बदलने वाली वस्तुओं की सूची तैयार करने लगे। याद कर-कर के सबों ने अपनी वस्तुओं को लिख लिया जो उन्हें अरुचिकर या असुंदर लगती थीं।

    निश्चित तिथि पर देवलोक से कई विमान भेजे गए, जो सुविधापूर्वक सबों को देवलोक पहुँचाने लगे। जब सब लोग वहाँ पहुँच गए तो विधाता ने अपने तीसरे नेत्र की योग दृष्टि से तीनों लोकों का अवलोकन किया कि कोई बचा तो नहीं आने से। उन्होंने पाया कि स्वर्ग तथा पाताल में कोई शेष नहीं रहा, केवल पृथ्वी पर एक मनुष्य आराम से पड़ा अपनी मस्ती में डूबा आनंद मग्न है। पास जाकर उससे पूछा-"तात! तुमने हमारा आदेश नहीं सुना क्या? तुम भी चित्रगुप्त के दरबार में क्यों नहीं चले जाते और अपने पास जो कुरूप, कुरुचिपूर्ण वस्तुएँ हैं, उन्हें बदलकर अच्छी वस्तुएँ ले आते, जानते नहीं कि अच्छाई की वृद्धि से सम्मान बढ़ता है।"

    वह व्यक्ति बड़ी ही नम्रता तथा गंभीरता से बोला-"सुना था भगवन् । किंतु मुझे तो आपकी बनाई इस सृष्टि में कुछ भी असुंदर नहीं दीखता। जब सभी कुछ आपका बनाया हुआ है, सब में ही आपकी सत्ता व्याप्त हो रही है तो असुंदरता कहाँ रह सकती हैं वहाँ ? मुझे तो इस सृष्टि का कण-कण सुंदर दिखाई देता है, प्रभु! फिर भला मैं किसी को असुंदर कहने का दुस्साहस कैसे कर सकता हैं?" 

    बाद में पता चला कि उस कसौटी पर केवल वही मनुष्य खरा उतरा था। बाकी सबको निराश ही लौटना पड़ा था।यह थी एक दार्शनिक की विश्व-विजय। जो संसार की कुरूप से कुरूप वस्तु में भी सौंदर्य का दर्शन करे वही सच्चा दार्शनिक है।

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