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    सुजाता की खीर

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    सुजाता की खीर 

    सुजाता ने खीर दी, बुद्ध ने उसे ग्रहण कर परम संतोष का अनुभव किया। उस दिन उनकी जो समाधि लगी तो फिर सातवें दिन जाकर टूटी। जब वे उठे, उन्हें आत्म-साक्षात्कार हो चुका था।

    नेरंजरा नदी के तट पर प्रसन्नमुख आसीन भगवान बुद्ध को देखने गई सुजाता बड़ी विस्मित हो रही थी कि यह सात दिन तक एक ही आसन पर कैसे बैठे रहे? तभी सामने से एक शव लिए जाते हुए कुछ व्यक्ति दिखाई दिए। उस शव को देखते ही भगवान बुद्ध हँसने लगे।

    सुजाता ने प्रश्न किया-"योगिराज! कल तक तो आप शव देखकर दुखी हो जाते थे, आज वह दु:ख कहाँ चला गया?"

    भगवान बुद्ध ने कहा-"बालिके! सुख-दुःख मनुष्य की कल्पना मात्र है। कल तक जड़-वस्तुओं में आसक्ति होने के कारण यह भय था कि कहीं वह न छूट जाए, वह न बिछुड़ जाए। यह भय ही दुःख का कारण था, आज मैंने जान लिया कि जो जड़ है, उसका तो गुण ही परिवर्तन है, पर जिसके लिए दुःख करते हैं, वह तो न परिवर्तनशील है न नाशवान। अब तू ही बता जो सनातन वस्तु पा ले, उसे नाशवान वस्तुओं का क्या दु:ख।"

    सुजाता यह उत्तर सुनकर प्रसन्न हुई और स्वयं भी आत्म-चिंतन में लग गई।

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