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    निराश न लौटाओ

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    निराश न लौटाओ 

    भगवान बुद्ध मृत्यु-शैया पर पड़े थे। उनकी जीवन-ज्योति के अस्त होने में कुछ ही विलंब था। सुभद्र नामक साधु ने यह समाचार सुना तो वह अपनी धर्म संबंधी कुछ शंकाओं को निवारण करने के उद्देश्य से उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। पर आनंद ने, जो कुटी के द्वार पर स्थित था उसे भीतर जाने से रोका और कहा-"भगवान को इस समय कष्ट देना उचित न होगा।" पर सुभद्र बराबर आग्रह करता रहा कि उसे भगवान का दर्शन कर लेने दिया जाए।

    बुद्ध जी ने भीतर पड़े हुए इस चर्चा को अस्पष्ट रूप से सुना और वहीं से कहा-"आनंद! सुभद्र को भीतर आने दो। वह ज्ञानप्राप्ति की इच्छा से आया है. मझे कष्ट देने नहीं आया।"

    सुभद्र ने जैसे ही भीतर जाकर करुणा की उस शांत मूर्ति को देखा, वैसे ही बुद्ध जी के उपदेश उसके हृदय में प्रविष्ट हो गए और वह प्रव्रज्या लेकर बौद्ध भिक्षु बन गया। बुद्ध भगवान ने शरीरांत होते हुए भी किसी ज्ञान के अभिलाषी को निराश नहीं किया।

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