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    शब्द अर्थ नहीं है, शब्द तो केवल अर्थ को खोलने की कुंजी है - ओशो


    शब्द अर्थ नहीं है, शब्द तो केवल अर्थ को खोलने की कुंजी है - ओशो

    तीसरा प्रश्न : भगवान कृष्ण ने सब समय के लिए गीता सुनने—सुनाने के लिए कुछ नियम बताए। लेकिन छापे के आविष्कार के बाद उसकी लाखों प्रतियां बिक रही हैं। फिर उसकी गोपनीयता कहां बची?

    ओशो
             गोपनीयता कुछ ऐसी है कि नष्ट की ही नहीं जा सकती। गोपनीयता न तो बोलने से नष्ट हो सकती है, न लिखने से नष्ट हो सकती है। गोपनीयता, जो कहा है, उसके स्वभाव में है।

    गीता बिक रही है, इससे गीता और भी गोपनीय हो गयी है। यह सुनकर तुम थोडे हैरान होओगे।
    इजिप्त में एक पुरानी कहावत है कि जिस चीज को आदमी से छिपाना हो, वह उसकी आंख के सामने रख दो, फिर वह उसे न देख पाएगा।

    तुम्हें याद है, तुमने कितने दिनों से अपनी पत्नी का चेहरा नहीं देखा? खयाल है तुम्हें कि तुमने कब से अपनी मां की आंख में आंख डालकर नहीं देखा?
    पत्नी इतनी मौजूद है, मां इतनी पास है, देखना क्या! तुम भूल ही गए हो कि उसका होना भी होता है। पत्नी मर जाती है, तब पता चलता है कि थी। पति जा चुका होता है, तब याद आती है कि अरे, यह आदमी इतने दिन साथ रहा, परिचय भी न हो पाया!

    इसीलिए तो लोग किसी के मर जाने पर इतना रोते हैं। वे रोते उसके मर जाने के कारण नहीं हैं; वे रोते इसलिए हैं कि जिसके साथ इतने दिन थे, उसे देख भी न पाए भर आंख, जिसके पास इतने दिन थे, उसके हृदय की धड़कन भी न सुन पाए; उससे कोई पहचान ही न हो पायी, वह अजनबी ही रहा, अजनबी ही विदा हो गया! और अब कोई उपाय नहीं है। इस विराट संसार में कहीं मिलना होगा दुबारा उससे, अब कोई उपाय नहीं है। यह अब घटना कभी घटेगी, कहा नहीं जा सकता। घटी थी और चूक गए। इसलिए लोग रोते हैं।

    जब तुम्हारा प्रियजन चल बसता है, तो तुम रोते इसलिए हो कि अवसर मिला था और चूक गया, हम उसे प्रेम भी न कर पाए। वे इजिप्शियन फकीर ठीक कहते हैं कि जिस चीज को छिपाना हो, उसे लोगों की आंख के सामने रख दो। जो चीज जितनी निकट होगी, उतनी ही ज्यादा भूल जाती है। और जो चीज जितनी ज्यादा साफ होगी, उतनी ही उलझ जाती है।

    गीता इतनी गूढ कभी भी न थी, जब छपी न थी, जब से छप गयी, बहुत गूढ़ हो गयी। घर के सामने रखी है, किताब खुली है, बैठे हो, पढ रहे हो; हजार दफे पढ़ लिए। और तुम्हें यह भ्रम पैदा हो गया है हजार दफे पढ़ लेने से कि जान लिया, अब जानने को बचा क्या?

    यही उसकी गोपनीयता है, बिना जाने तुम सोच रहे हो कि तुमने जान लिया। शब्द के परिचय को तुम अर्थ का परिचय समझ रहे हो! शरीर की पहचान को तुम आत्मा की पहचान समझ रहे हो!
    शब्द अर्थ नहीं है। शब्द तो केवल अर्थ को खोलने की कुंजी है।

    गीता, बाइबिल या कुरान जिस दिन से छप गई हैं, उस दिन से बहुत गोपनीय हो गई हैं सब चीजें। जब ये छपी हुई न थीं, जब ऐसी सरलता से उपलब्ध न थीं, तो लोग हजारों मील की यात्रा करते थे। अब कहीं जाने की जरूरत नहीं है। गीता प्रेस गोरखपुर की गीता चार पैसे में बाजार—बाजार में उपलब्ध है। ज्ञान बाजार में बिक रहा है, खरीद लाओ! जितनी गठरी भरनी हो, भर लाओ!

    जब शास्त्र छपे न थे, तब तुम्हें गुरु खोजना पड़ता था, क्योंकि शास्त्र को तुम सीधा समझ ही न सकोगे। तुम्हें कोई व्यक्ति खोजना पड़ता था, जो शास्त्र का धनी हो; जो शास्त्र को तुम्हारे लिए गम्य बनाए; जो शास्त्र की गोपनीयता को उघाड़े; जो परदे उठाए, जो घूंघट हटाए।

    तुम्हें कोई व्यक्ति खोजना पड़ता था। तुम बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को खोजते फिरते थे। हजारों मील की यात्रा लोग करते थे। कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जो उस गुप्त को प्रकट कर दे।

    उस यात्रा में ही तुम्हारे जीवन में क्रांति घटती थी, क्योंकि वह यात्रा ही तपश्चर्या थी। उस यात्रा में टिके रहना ही तुम्हारी भक्ति थी, तुम्हारी श्रद्धा थी। वह यात्रा कठिन थी। जीवन लग जाता था। मुश्किल से कुंजियां हाथ आती थीं। जितनी मुश्किल थी, उतनी ही तुम खोज में जाते थे।

    अब खोज की जरूरत क्या है? अब गीता समझने तुम हिमालय जाओगे? अब गीता समझने के लिए तुम किसको खोजोगे? किसी व्यास को खोजोगे? किसी कणाद को, किसी कपिल को, किसी बुद्ध को? किसी पतंजलि के चरणों में बैठोगे? क्या जरूरत है! चार पैसे में मिलती है गीता, इसके लिए इतने परेशान होने की जरूरत क्या! खरीद लाओ!

    लेकिन जो किताब तुम घर ले आओगे, उस किताब का कृष्ण से कोई भी संबंध नहीं है। क्योंकि उस किताब में से तुम जो अर्थ निकालोगे, वे तुम्हारे होंगे। तुम अपने से ज्यादा अर्थ थोड़े ही निकाल पाओगे। तुम अपने को ही पढ़ लोगे किताब में, तुम कृष्ण को थोड़े ही पढ़ सकोगे। तुम्हारी जहां तक पहुंच है, वहीं तक तो तुम उन शब्दों में भी पहुंच पाओगे। तुमने अब तक जो सोचा—समझा है, वहीं तक तुम सोच—समझ पाओगे। तुमसे पार किताब तुम्हें कैसे ले जाएगी?

    नहीं, किताब जिस दिन से छप गयी है, उस दिन से गोपनीयता गहन हो गयी है, बहुत गहरी हो गयी है। अब तो मुश्किल से कभी कोई उसका घूंघट उठाने की यात्रा पर जाता है। और मुश्किल से कभी तुम्हें वह आदमी मिल सकेगा जो घूंघट उठाने में समर्थ है।

    हां, तुम्हें गीता के पंडित अब बहुत मिल जाएंगे; कृष्ण न मिल सकेंगे। गीता की किताबों ने गीता के पंडित खड़े कर दिए हैं। उनसे जाकर तुम सब समझ लोगे जो ऊपर—ऊपर का है। वे शब्द की खाल निचोड़कर रख देंगे, बाल की खाल निकाल देंगे।

    लेकिन जब तुम आओगे, तो जैसे खाली हाथ गए थे, वैसे ही खाली हाथ वापस लौट आओगे। तुम्हारे प्राण भरे हुए न होंगे। तुम्हारे भीतर का दीया वैसा ही बुझा होगा। और खतरा यह है कि हो सकता है, तुम यह सोचकर लौट आओ कि समझकर आ गए—गोपनीयता और महा गोपनीयता हो गयी!

    नहीं; छापेखाने से गोपनीयता मिटी नहीं, बढ़ गयी है। और अब तो बहुत गहरी खोज हो, तो ही तुम खोज पाओगे।

    गीता दर्शन–(भाग–8) प्रवचन–217

    -ओशो

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